Home Event Reports शूद्र: एक नए पथ के लिए दृष्टि

शूद्र: एक नए पथ के लिए दृष्टि

11
0

इम्प्री टीम

डॉ भीम राव अम्बेडकर की जयंती के उपलक्ष्य में और राष्ट्र निर्माण में शूद्र क्रांति के संदर्भ में, सेंटर फॉर ह्यूमन डिग्निटी एंड डेवलपमेंट (CCHD), IMPRI इंपैक्ट एंड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट, नई दिल्ली द्वारा 29 अप्रैल, 2021 को “The Shudras Vision For a New Path”पर एक पुस्तक चर्चा आयोजित किया गया।

Panelists The Shudras

प्रख्यात पैनलिस्टों में प्रो कांचा इलैया शेफर्ड( भारतीय राजनीतिक सिद्धांतकार, विपुल लेखक, दलित अधिकार कार्यकर्ता) और डॉ अरविंद कुमार ( सहायक प्रोफेसर, सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोशल एक्सक्लूजन एंड इनक्लूसिव पॉलिसी (सीएसएसआईपी), जामिया मिल्लिया इस्लामिया (जेएमआई), नई दिल्ली) शामिल वक्ताओं के रूप में थे । प्रोफेसर सुखादेव थोराट ( प्रख्यात अर्थशास्त्री; प्रोफेसर एमेरिटस, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू); अध्यक्ष, भारतीय दलित अध्ययन संस्थान (IIDS)) वार्ता के अध्यक्ष के रूप में, डॉ अजय गुडावर्ती (एसोसिएट प्रोफेसर, सेंटर फॉर पॉलिटिकल स्टडीज, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू), नई दिल्ली) और डॉ आकाश सिंह राठौर ( सीरीज एडिटर, रीथिंकिंग इंडिया, पेंगुइन / विंटेज; राजनीति, दर्शनशास्त्र और कानून के प्रोफेसर, लुईस विश्वविद्यालय, रोम) वार्ता के चर्चाकर्ता के रूप में शामिल थे ।

जाति की राजनीति

kancha

पुस्तक चर्चा के लिए पृष्ठभूमि तैयार करते हुए, वक्ता, प्रो कांचा इलैया शेफर्ड ने बहुत संक्षेप में हमारे देश की जाति की राजनीति के विभिन्न पहलुओं में व्यक्त अरते हुए अपनी पुस्तक का एक झलक साझा की । प्रो इलैया ने बड़ी ही आत्मीय ढंग से अपनी पुस्तक के शीर्षक के रूप में “शूद्रों” के ही संबंध में चयन करने के स्पष्ट कारणों को जाहिर किया । इसी  संदर्भ में उन्होंने चर्चा की कि कैसे हमारे देश में कुछ बाहुबली व प्रभावशाली वर्ग अपने राजनीतिक प्रभाव से दंभित होकर समाज के सीमांत एवं हाशिए के वर्गों को नियंत्रित करने के लिए सदा तत्पर हैं।

उन्होंने वैदिक या प्राचीन काल के भारतीय समाज का हवाला देते हुए इस तथ्य पर भी कुठराघात करते हुए कहा कि पूर्व से ही उच्च जातियाँ निम्न वर्गों पर हावी रही हैं और उनका शोषण करती रही हैं, विशेषकर शूद्रों के संदर्भ में, जिन्हें हिंदू धर्म में वर्ण व्यवस्था के क्रम में मुख्य रूप से एक कामकाजी और उत्पादन-आधारित/ उत्पादक  वर्ग ही  माना जाता है, जबकि अन्य तीन उच्च वर्ग – ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ने हमेशा शूद्रों के स्वामी के रूप में व्यवहार करते हुए अपनी वर्चस्वता का परिचय दिया है। ज्ञातव्य है कि ब्राह्मण वर्ग हमेशा अपने आर्थिक-सामाजिक विकास निर्माण, सभ्यता निर्माण और बौद्धिक वैधता आदि की भूमिका के दावे के लिए पहचाना जाता है।

प्रो कांचा इलैया शेफर्ड ने भारतीय समाज में शूद्रों की वर्तमान प्रास्थिति को उनके आर्थिक प्र्टिनिधितव के आधार पर परिभाषित किया। इसके साथ ही, उन्होंने कई पहलुओं के समीक्षात्मक विवेचनों के आधार पर ब्राह्मणवाद की आलोचना की और कहा कि अब वक़्त आ गया है कि हमें पुरातन समाज की कुछ रीतियों व परम्पराओं को वर्तमान परिदृशय में रखकर सजगता से विचार करना होगा, जैसे कि शूद्रों को पवित्र धागा “जनेऊ” पहनने की अनुमति क्यों नहीं दी गयी तथा उन्होंने अभी तक पुजारी की भूमिका क्यों नहीं निभाई है।

इसके अलावा, क्यों शूद्रों को ही सर्वदा हर दौर में तात्कालिक समाज की संभ्रांत भाषा से विमुख किया जाता रहा है, उदाहरणार्थ प्राचीन भारत में उन्हें “संस्कृत” भाषा  से पूरी तरह से तटस्थ रखा गया और वर्तमान भारत में “अंग्रेजी” के अभिगम व पहुँच से दूर किया जा रहा है। अतएव उन्होंने भाषाई भेदभाव के इस रूप को शूद्रों की अकादमिक शिक्षा में एक बाधा के रूप में प्रस्तुत करते हुए तथाकथित उच्च वर्गों के निजी स्वार्थ पर भी कटाक्ष किया।

आगे चर्चा में, प्रो इलैया ने भाजपा, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संगठन (आरएसएस) और अन्य राजनीतिक ताकतों की आधिपत्य की विशेषता के बारे में भी चिंता व्यक्त की और निंदा करते हुए कहा कि कैसे वे सभी भारतीय समाज में जीवन के हर क्षेत्र में शूद्रों को दबा रहे हैं। उन्होंने यह भी कहा कि यह हमारे भारतीय समाज की विडंबना है कि आज तक शूद्रों के जीवन-पहलुओं व विचारों को किसी भी मंच पर दर्शन एवं अकादमिक पहचान ही नहीं मिली, जो अब तक मिलनी चाहिए थीं क्योंकि इस दिशा में लेखन का सर्वथा अभाव है और कैसे शूद्र वर्ग सत्ताधारी व दक्षिणपंथी दलों के लिए केवल एक बाहुबल और वोट बैंक बन कर ही रह गए हैं ।

ध्यातव्य है कि आज तक केंद्र सरकार में शूद्रों का कोई प्रतिनिधित्व नहीं रहा है, इस समुदाय से अबतक हमारे देश में केवल दो प्रधानमंत्रियों का चयन हुआ लेकिन उनका कार्यकाल अत्यंत अल्पावधि का रहा। साथ ही, एक सर्वविदित एवं विचारणीय तथ्य यह भी है कि हमारे देश में 100 उद्योगपतियों और 25  एकाधिकार प्राप्त रसूखदारों की सूची में इस वर्ग का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है, जबकि इनकी देश की जनसंख्या में ५२% योगदान है।

अतः इस वर्ग के अस्तित्व को बारम्बार सिरे से नकारा गया है, जबकि यह भी जगजाहिर है कि इनके सहयोग के बिना भाजपा व  आरएसएस सत्ताधारी समूह की भूमिका में केवल गौण ही प्रतीत होते। इन सबके बावजूद, यह भारतीय समाज की विडम्बना ही है कि राष्ट्रीय स्तर पर भी  शूद्रों की चिंताओं व उनके पक्षों  को अबतक प्रभावपूर्ण तरीके से संबोधित नहीं किया जाता है। अत: शूद्र अभी भी धर्मनिरपेक्षता और उपनिवेशवाद विरोधी सोच के नाम पर वैदिक संस्कृति की वर्चस्ववादी मानसिकता का  दंश झेल रहे हैं।

इसके अलावा, प्रो इलैया ने बताया कि यह भी जानने योग्य तथ्य है कि कैसे एक तरफ आदिवासियों को उनके अलग स्थान व भौगोलिक संरचना ने आसानी से  उनके अस्मिता को एक सुदृढ़ता दिलायी। जबकि दूसरी ओर, इस संदर्भ ने शूद्रों को हमेशा भारतीय समाज के तथाकथित आर्थिक, राजनीतिक और आध्यात्मिक आधिपत्य वाले समूहों से भेदभाव का सामना करना पड़ता आ रहा  है। साथ ही, उन्हें हमेशा गैर-बौद्धिक, गैर-आधुनिकतावादियों के एक वर्ग के रूप में ही पहचाना जाता रहा था और वे ब्राह्मण पुजारी के दास के रूप में ही  अपनी भूमिकाओं का निर्वहन करते आ रहे थे।

आगे, उन्होंने अपनी पुस्तक का यथार्थ वर्णन करते हुए यह भी साझा किया कि कैसे वर्तमान युग के अंतर्गत भी भारतीय समाज में अंग्रेजी भाषा को एक ऐसी बौद्धिक संपत्ति के रूप में माना जा रहा है, जैसे कि उस पर सिर्फ समाज के उच्च वर्गों का ही एकाधिकार हो । उन्होंने जाति की राजनीति को अत्यंत निंदक करार देते हुए हमारे वर्तमान प्रधान मंत्री और उनके चयन में तथाकथित “बनिया” वर्ग द्वारा आर्थिक समर्थन दिये जाने पर कटाक्ष किया।

संक्षेप में, प्रो इलैया अपनी पुस्तक के उद्देश्य के बारे में कहते हैं कि यह पुस्तक विशेषत: शूद्रों के मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित करने का मार्ग प्रशस्त करता है। इसके साथ ही,  उन्होंने अपनी चिंता भी व्यक्त की और कहा कि यह गहन अध्ययन का पहलू है कि  कैसे आरएसएस वर्तमान भारतीय समाज में ब्राह्मणवादी कार्यात्मक समूहों का एक नया रूप लाया और  जिसने मंदिर, धन, राजनीतिक और औषधीय मूल्यों (जैसे कि गोमूत्र के नाम पर)  की आदि सेवाओं के रूप में आधिपत्य स्थापित करते हुए हिंदू धर्म का एक अन्य केंद्रित दृष्टिकोण भी प्रस्तुत किया।

इसी दिशा में, उन्होंने शूद्र साहित्य की कमी के संदर्भ में भी अपनी चिंता व्यक्त करते हुए “गुलामगिरी” को अब तक की सबसे अच्छी रचना करार देते हुए इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की । अपने वक्तव्य को थोड़ा विराम देते हुए उन्होंने अपनी युवा टीम के सदस्यों की भी सराहना की, जो सभी शूद्र समुदाय से आते हैं और जिन्होंने अपनी पहचान न छिपाते हुए अपना सर्वश्रेष्ठ योगदान दिया है।

राष्ट्र निर्माण

rathore

इस परिचर्चा के विवेचनकर्ता, प्रो आकाश सिंह राठौर ने अपनी बात यह कहते हुए प्रारंभ किया कि इस पुस्तक श्रृंखला का पाँचवाँ भाग है और साथ ही उन्होंने पुस्तकों की अन्य पिछली श्रृंखलाओं का भी संक्षिप्त विचार प्रस्तुत किया। आगे उन्होंने इस पुस्तक की सराहना करते हुए कहा कि यह पुस्तक भारतीय समाज में व्याप्त जाति की राजनीति के वर्तमान परिदृश्य में काफी प्रासंगिक है।

यह पुस्तक हमारी समाज के विभिन्न वर्गों के प्रतिनिधित्व व नेतृत्व आदि के वास्तविकताओं पर पुनर्विचार करने और इसी दिशा में राजनीतिक और सार्वजनिक क्षेत्रों की व्यवहार्य कल्पना करने का एक आदर्श मंच सुझाती है जो अब तक बहुत सीमित हैं।

उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि यह पुस्तक आधुनिक भारत के बुद्धिजीवियों और नीति निर्माताओं के लिए एक नए, न्यायसंगत और समृद्ध भविष्य के संदर्भ में कुछ नए सुझाव भी देती है। यह पुस्तक राष्ट्र निर्माण में वैचारिक क्रांति और संवैधानिक मूल्यों की भी वकालत करते हुए श्रेणीबद्ध असमानता के सिद्धांत के समापन हेतु आधुनिक भारतीय संदर्भ में पुनर्विचार करने का एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है।

अंत में, उन्होंने सुझाव दिया कि आधिपत्य ब्राह्मण वर्ग की आध्यात्मिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक गुलामी से छुटकारा पाने और सभी के लिए एक समान और न्यायपूर्ण राष्ट्र बनाने के लिए यह आवश्यक है कि तथाकथित पौराणिक उपधारणों के कालचक्र को टटोलते हुए नवनिर्माण का आगाज किया जाए।

हिंदू राजनीति और हिंदू राष्ट्र

ajay

अगले चर्चाकर्ता, डॉ अजय गुडावर्ती, ने इस पुस्तक पर अपनी कड़ी टिप्पणियों के साथ विचार प्रस्तुत करते हुए नि:संदेह इसे एक सामयिक बौद्धिक रचना के ही उपाधि प्रदान कीं। उनके अनुसार, यह पुस्तक वर्तमान भारतीय परिदृश्य में हिंदू राजनीति और हिंदू राष्ट्र की दृष्टिकोण  रखने वाले तथाकथित सत्ताधारी वर्गों का एक वैचारिक आधार प्रस्तुत करती है। दूसरे शब्दों में, यह समाज के सीमांत व हाशिए के वर्गों के संदर्भ में एक ज्ञानमीमांसात्मक दर्शन और प्रमुख आधिपत्य प्रस्तुत करता है।

इस पुस्तक ने एक समाजशास्त्रीय संघर्ष एवं वर्ग- अस्मिता के पहलू को भी उजागर  किया है जिसे हमने वैदिक काल में बौद्ध धर्म के ऐतिहासिक भूमिका को खो दिया था। जैसा कि यह एक सर्वविदित तथ्य है कि बौद्ध धर्म ने  ही प्राचीन भारतीय इतिहास में सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक प्रभुत्व के आयामों पर ब्राह्मणवाद के खिलाफ पहली क्रांति का शंखनाद किया था। साथ ही, उन्होंने शूद्रों के संबंध में कुछ प्रश्न भी उठाए कि क्यों भारतीय समाज में हमेशा इस वर्ग को केवल उत्पादक कार्यों के लिए ही अनुपयोगी मानकर राष्ट्रीय स्तर पर उनके अस्तित्व व क्षमताओं का निम्न आकलन किया जाता है।

इसके अलावा, डॉ गुडावर्ती ने जोर देकर यह भी कहा कि एक तरफ शूद्र वर्ग अपनी  गतिशीलता और वैचारिक कार्य के बारे में चिंता प्रकट करते हैं, लेकिन दूसरी तरफ, वे स्वयं को अपने पहचान छिपाने वाले उदाहरण प्रस्तुत करते हुए राष्ट्रीय हित के मसलों पर पूर्ण योगदान नहीं देते, जो कि एक विरोधाभास ही है।

उदाहरण के लिए, हाल के किसानों के संबंध में पारित अधिनियमों के विरोध में इस वर्ग का प्रतिनिधित्व न होकर केवल अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी)  का ही रहा था। इस अर्थ में,  यह एक विचारणीय प्रश्न ही है कि क्यों वे अपनी चिंताओं के साथ सामने नहीं आए, जबकि यह सर्वमान्य तथ्य है कि शूद्र मुख्यत:  कृषक या उत्पादक वर्ग हैं।

साथ ही, उन्होंने यह विचार भी प्रस्तुत किया कि इतिहास की अज्ञानता के कारण शूद्रों और ओबीसी के बीच सर्वदा एक अप्रत्यक्ष अंतर्विरोध रहा है, अत: समीचीन है कि इस मुद्दे को संबोधित करने का समय पूरी तरह से आ गया है। उन्होंने जाति दर्शन के मिथकों और पौराणिक कथाओं की ओर भी ध्यान आकर्षित करते हुए कुठराघात किया कि यही वो मुख्य कारण है कि शूद्रों को अब तक भारतीय समाज में वास्तविक पहचान नहीं मिली है।

डॉ गुडावर्ती ने पुस्तक के परिचय भाग के बारे में गहनता से बात की, जो कि शूद्रों के उत्थान के संदर्भ में स्पष्ट रूप से व्याख्या नहीं करता है, चूंकि यह भाग मुख्य तौर पर  केवल दक्षिणपंथी विचारधारा के ऐतिहासिक आधिपत्य, देर से उभरे पूंजीवाद के सांस्कृतिक तर्क और सत्ता व समतावादी दृष्टिकोणों पर ही चर्चा करता है।

अंत में, उन्होंने कहा कि यह पुस्तक एक प्रकार से प्रतीकात्मक समायोजन को प्रस्तुत करती है जो समाज में समावेश और बहिष्कार के निरंतर खेल का कारण रहा है। अत: वर्तमान सामाजिक सिद्धांत में इस प्रकार की समानता लाने और शक्तियों की गतिशीलता को हल करने के लिए यह समय की आवश्यकता है कि इन सामाजिक पहलुओं की न्यायसंगत समीक्षा करते हुए इस दिशा में प्रगतिशील निर्णय लिए जायें।

“शूद्र” शब्द

kumar

इस चर्चा के अगले स्पीकर- डॉ अरविंद कुमार ने देश के विभिन्न शिक्षण संस्थानों में आरक्षित वर्ग की बैकलॉग सीटों व उनके अकादमिक प्रतिनिधित्व से संबंधित कुछ नीतिगत चिंताओं के साथ अपनी चर्चा की शुरूआत करते हुए, अपने कुछ व्यक्तिगत अनुभव भी साझा किए।

डॉ कुमार ने गहनात्मक विचार साझा किया कि कैसे शूद्रों ने भारतीय समाज में ऐतिहासिक काल  से अवहेलना, इनकार, तिरस्कार और अन्याय आदि का सामना किया है,  क्योंकि उन्हें समाज के तथाकथित उच्च वर्गों ने पढ़ने और लिखने का अधिकार दिया ही नहीं था, उन्हें उस काल में केवल ब्राह्मणों का सेवक मात्र ही माना जाता था।

आगे, इस पुस्तक के शीर्षक पर चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि हमारे देश में हम नामकरण की स्पष्ट राजनीति देख सकते हैं, इसलिए हमने जानबूझकर शीर्षक में “शूद्र” शब्द को ही अंतिमत:  चयनित किया, ताकि हम इस वर्ग और इसकी जमीनी हकीकत को राष्ट्रीय व आधुनिक परिदृश्य में सही मायने में संबोधित कर सकें। .

साथ ही, उनका सरोकार पिछड़ा वर्ग और दबे-कुचले वर्ग के अकादमिक साहित्य के संदर्भ में कार्यप्रणाली की दृष्टि से प्रश्न को लेकर भी था। अपने वक्तव्य के अंतिम पायदान में, उन्होंने यह मुद्दा उठाया कि यह शोध का विषय होना ही चाहिए कि सिर्फ उच्च वर्ग द्वारा सामाजिक अन्याय एवं सामंतवादी सोच के कारण शूद्र समाज में कैसे हार गए,  अत: इस अर्थ में, समतावादी अनुभवजन्य एवं समानाधिकारवादी प्रयोगसिद्ध कार्यों की प्रस्तुति की नितांत आवश्यकता है।

शूद्र: आर्थिक, राजनीतिक और वैचारिक

thorat

इसके अलावा, प्रो सुखादेव थोराट ने पूरी चर्चा पर अपनी सारगर्भित टिप्पणी दी। वह मानते हैं कि नि:संदेह ओबीसी और शूद्रों की विभिन्न समस्याएं और मुद्दे रहे हैं, लेकिन का इसका मौलिक कारण यह ही है कि इसे अभी तक ठीक से नहीं उठाया गया है, इसलिए यह समस्या बनी हुई है। उन्होंने तर्कों के आधार पर अपनी बात रखी कि यह विचार किया जाना जरूरी है कि क्यों शूद्रों को  परिभाषित के संदर्भ में आर्थिक, राजनीतिक और वैचारिक- तीन वर्गीकरणों की आवश्यकता पड़ती है?

आगे अपनी बात पर ज़ोर देते हुए कहा कि हम शूद्रों और ओबीसी की सामाजिक-आर्थिक स्थिति के बारे में सही जानकारी हासिल करने के लिए एनएसएसओ के आंकड़ों पर विचार क्यों नहीं कर रहे हैं? साथ ही, उन्होंने युवा विद्वानों को अपने शोध कार्य में डेटा का पालन करने, तर्कों का सत्यापन/प्रमाणीकरण देने आदि का बहुमूल्य सुझाव दिया।

उन्होंने शूद्रों के ऐतिहासिक संदर्भ का हवाला देते हुए बताया कि यह सर्वविदित तथ्य है इस वर्ग का भूमि के किसान के रूप में भी सम्बोधन किया जाता रहा है, क्योंकि उन्हें तात्कालिक काल-परिस्थितियों में कृषि के क्षेत्र में कोई उच्च उपज या विकसित तकनीक आदि की सहायता नहीं मिली थी, लेकिन उन्होंने केवल अनुभवों के माध्यम से ही अपनी पूर्वजों की परंपराओं को आगे बढ़ाया या उनका पालन किया। इसलिए उन्हें उस काल में अन्य व्यवसायों और शिक्षा प्रतिबंधों का सामना भी करना पड़ा, अंतत: जिससे प्राचीन भारत में अस्पृश्यता की प्रथाएँ भी सामने आईं।

मनुस्मृति के अनुसार, उस काल में खेती को एक निम्न पेशा माना जाता था, इसलिए शूद्रों के साथ बुरा व्यवहार किया जाता था क्योंकि वे मजदूरी व श्रम करते थे। लेकिन वर्तमान युग में हमने देखा है कि शूद्र भी भूमि के उत्पादक और मालिक- दोनों ही हैं। निःसंदेह श्रेणीबद्ध समानता ने भी शूद्रों की समस्याओं की गलत व्याख्या की, अत: इस अर्थ में एक सकारात्मक वैचारिक पहल कर इस वर्ग के मुद्दों को तार्किक रूप से प्रस्तुत करने की आवश्यकता है।

प्रोफेसर सुखादेव थोराट ने भी भारतीय राजनीति में शूद्रों के प्रतिनिधित्व के बारे में स्पष्ट रूप से बात की। उन्होंने इस बात पर भी जोर देते हुए यह स्वीकार किया कि इसमें दो मत नहीं है कि भारतीय समाज में ओबीसी और शूद्र हालांकि बहुसंख्यक वर्ग होते हुए भी, वे सत्ता में नहीं हैं। साथ ही, यह तथ्य भी विचार किया जाना आवश्यक है कि चूंकि इन वर्गों का हमारे देश की कुल आबादी में 52% प्रतिनिधित्व हैं, अत: इस अर्थ में हम हमेशा उच्च जाति को दोष नहीं दे सकते कि उनकी सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक आदि मान्यताओं की अवहेलना की गयी है। 

अंत में, उन्होंने सुझाव दिया कि विचारधारा और सामाजिक शिक्षा के आधार पर हमें इस बारे में गंभीर रूप से सोचना चाहिए कि समकालीन युग में शूद्रों की ययार्थिक अस्मिता क्यों धूमिल हो रही है, इस संदर्भ में कमियां कहां है?

आगे चर्चा, एक बार फिर स्पीकर प्रो कांचा इलैया शेफर्ड के रुख लेती और उन्होंने कई पहलुओं में प्रोफेसर सुखादेव थोराट द्वारा साझा किए विचारों से मतभेद जाहिर करते हुए अपने पक्ष रखें और कहा कि वर्तमान आधुनिक काल में यह अपरिहार्य है कि शूद्र वर्ग की  अस्मिता व गरिमा को समाज में उसका न्यायपूर्ण व उचित स्थान दिलाने की दिशा में भूमि को समृद्धि का प्रतीक न मानकर, अपितु ज्ञान को समृद्धि व प्रगति का एकमात्र प्रतीक माना जाए। वह इस बात से भी असहमत थे कि हम संख्याओं एवं आँकड़ों के आधार पर समाज में शूद्र अथवा अन्य पिछड़ी जातियों के ऐतिहासिक और दार्शनिक मुद्दों के प्रश्नों को कैसे संबोधित कर सकते हैं।

अंत में, श्री मणिकांत ने भी इस पुस्तक चर्चा में अपना योगदान देते हुए अपने विचार  साझा करते हुए कहा कि इस पुस्तक के जरिये व आज के इस सार्थक विचार-विमर्श के तर्कों के आधार पर हमें उन क्षेत्रों की पहचान करनी होगी जहां ओबीसी और शूद्र विफल हो रहे हैं। उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि ब्राह्मणों की आधुनिकता के सार को समझने की नई मानक दिशा में शूद्र वर्ग में  नवचेतना व विचारों के सृजन की तत्काल आवश्यकता है। प्रो कांचा इलैया शेफर्ड ने अपने अंतिम निष्कर्ष में इस पुस्तक खंड के मुख्य उद्देश्य को बताते हुए कहा कि यह शूद्र वर्ग के संदर्भ में विचार- विमर्शों का मंच प्रदान कर एक क्रांतिकारी आगाज करना है।

पावती: प्रियंका इम्प्री में एक रिसर्च इंटर्न हैं और वर्तमान में चिन्मय विश्वविद्यापीठ, कोच्चि, केरल से एमए (पीपीजी) कोर्स कर रही हैं।

यूट्यूब वीडियो शूद्र: एक नए पथ के लिए दृष्टि

Previous articleNeed to ‘Break the Inertia’ about the Pandemic- Dr. Anil Jaggi
Next articleThe Rock Babas and Other Stories: A Book Discussion
IMPRI, a startup research think tank, is a platform for pro-active, independent, non-partisan and policy-based research. It contributes to debates and deliberations for action-based solutions to a host of strategic issues. IMPRI is committed to democracy, mobilization and community building.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here